एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी
गोंदिया। वैश्विक स्तर पर दुनियां के करीब करीब हर देश में कई वीभत्सय अपराध होते हैं जिस पर विपक्ष जोर दार ढंग से इसे मुद्दा बनाकर उठना है, तो पक्ष डैमेज कंट्रोल करने की अपनी कार्रवाई में व्यस्त रहता है,जो हम दशकों से देखते आ रहे हैं। भारत में भी हमने दशकों से कई सरकारें आती जाती देखी है, कई बार केंद्र में जिस पार्टी की सत्ता रहती है व अनेकों प्रदेशों में विपक्ष में रहते हैं या यू कहें कि राज्यों में व केंद्र में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें रहती है, परंतु एक बात काॅमन देखने को मिलती है जहां डबल इंजन सरकार होती है वहां केंद्र राज्य दोनों दोनों स्थानों पर कहीं भी किसी भी प्रकार का वीभत्सय कांड होता है तो इतना विरोध प्रदर्शन देखनेको नहींमिलता परंतु यदि सिंगल इंजन सर कार राज्य में है तो स्वाभाविक रूप से इशू बहुत बड़ा बनता है,जो हम दशकों से देखते आ रहे हैं। परंतु मेरा मानना है कि यदि वीभत्सय घटना है व मानव जाति को शर्मसार कर रही है तो, उसमें यह राजनीति नहीं होना चाहिए अलग-अलग इंजन भी मिल कर एकमत होकर उन दोषियों को उच्चतम सख्त सजा दि लाने में एकमत होकर आपसी तालमेल से सहयोग से कार्य वाही करना लाजमी है। परंतु कई बार ऐसा नहीं होता, आ पस में ही टकराव उत्पन्न हो जाता है जिसका सटीक उदाहरण वर्तमान में हम पश्चिम बंगाल और केंद्र सर कार में देख रहे हैं। टकराव इतना बढ़ गया है कि वहां राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रयास तेज हो गए हैं। घटना बहुत विभात्स्य व अमानवीय है, इसमें कोई दो राय नहीं है, हालांकि निंदत पश्चिम बंगाल सरकार भी कर रही है परंतु स्थिति ऐसी होती जा रही है कि, संवैधानिक तंत्र की लाचारी झलकती है।
हालांकि राष्ट्रपति महोदय अनुच्छेद 355-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगा सक ती है, जो कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस सरकारों द्वारा 90 बार तो वर्तमान सरकार द्वारा 9 बार राष्ट्रपति शासन लगा या जा चुका है। जिन राज्यों में यह शासन लागू किया गया उनमें जम्मू कश्मीर उत्तरा खंड, महाराष्ट्र और अरुणाचल जैसे राज्य हैं। यदि पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की बात करें तो उन्होंने सबसे अधिक 50 बार इस प्रावधान का इस्तेमाल किया है। जबकि पश्चिम बंगाल सरकार में भी आखरी बार 29 जून 1971 से 20 मार्च 1972 तक राष्ट्रपति शासन लग चुका है जबकि वर्तमान में भी इसकी संभावना दिख रही है, परंतु इसकी प्रक्रिया आसान नहीं है बहुत सी बातों को ध्यान में रखना पड़ता है, तभी अरुणाचल व उत्तराखंड मामले में 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने भी वहां राष्ट्रपति शासन रद्द करने का निर्णय दिया था कि संवैधानिक ढांचे को ध्व स्त होने की स्थिति को केंद्र सरकार द्वारा ही सिद्ध करना होगा। दूसरी ओर वर्तमान केंद्र सरकार स्वतंत्र नहीं है, बैसाखियों पर है, हो सकता है विपक्ष के दबाव में भी हो। चूंकि बंगाल में बवाल, क्या राष्ट्रपति शासन का ख्याल?
इसलिए बंगाल में राष्ट्रपति शासन की सुबसुबाहट तेज! उच्च स्तरीय संवैधानिक पद विधरों के बीच मुलाकातों का दौरा शुरू हो गया है इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे, पश्चिम बंगाल में राष्ट्र पति शासन लगाने के निर्णय के पहले अरुणाचल उत्तराखंड प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द करने के फैसले को रेखांकित करना जरूरी है।
साथियों बात अगर हम राष्ट्रपति शासन को समझने की करें तो प्रारंभिक तौर पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 6 महीने के लिए लगाया जा सकता है राष्ट्रपति शासन की सिफारिश पर दोनों सदनों की मंजूरी जरूरी होती है। यहां तक व्यवस्था है कि यदि लोकसभा अस्तित्व में नहीं तो इसे राज्यसभा से पारित करवाया जाए, बाद में जैसे ही लोकसभा का गठन हो वहां से एक महीने के भीतर इसे पास करवा लिया जाए। राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि भी निर्धारित है। किसी भी राज्य में राष्ट्र पति शासन ज्यादा से ज्यादा तीन साल तक ही लागू किया जा सकता है।राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए संवैधानिक मानदंडों को पूरा करना आव श्यक है, जैसे – संवैधानिक मशीनरी की विफलता या का नून और व्यवस्था की खराब स्थिति। बंगाल केराज्यपाल ने ममता सरकार के खिलाफ बयान जरूर दिया है लेकिन राष्ट्रपति शासन से संबंधित किसी भी तरह की सिफारिश केंद्र को नहीं भेजी है जिस में राज्य की स्थिति की गंभी रता का उल्लेख किया गया हो। अगर सीधे तौर पर कोई कार्रवाई की गई तो इसका औचित्य साबित करना टेढ़ी खीर होगा। इस तरह एक्स ट्रीम कार्रवाई करने की स्थि ति में अभी सरकार दिखाई नहीं दे रही है। इस समय बंगाल में ममता के खिलाफ लोगों का जबर्दस्त आक्रोश है। लोग उद्देलित हैं, सड़कों पर उतरे हुए हैं, सरकार को लाॅ एंड आॅर्डर के मोर्चे पर पूरी तरह से फेल मान रहे हैं। मान रहे हैं कि सरकार महिलाओं को सुरक्षा देने में असफल साबित हो रही है। पार्टी इस स्थिति का फायदा अपने फेवर में ले सकती है और ममता सरकार को बैकफुट पर ढकेल सकती है। पार्टी मोर्चे रैलियों के माध्यम से ममता को अस फल सरकार साबित करने में लगी हुई है। ऐसे में यदि सरकार को हटाकर वहां राष्ट्र पति शासन लगाया जाएगा तो सीधी जिम्मेदारी मोदी सरकार पर आ जाएगी निश्चित तौर पर कोई भी सरकार इस सिचुएशन से बचना चाहेगी।
राष्ट्रपति शासन लगाने पर हो सकता है कि मोदी सरकार को सबसे बड़ा विरोध सहयोगी दलों की ओर से ही झेलना पड़ सकता है। चंद्रबाबू नायडु या नीतीश कुमार राज्यों में केंद्र के ज्यादा हस्तक्षेप के वैसे भी खिलाफ रहे हैं। इसके अलावा अन्य सहयोगी भी विपरीत रुख अपना सकते हैं। वहीं, विपक्षी दलों, लोगों की विपरीत प्रतिक्रिया आ सकती है।इससे समाधान की तुलना में अधिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं।सरकार के पास चूंकि अभी पूर्ण बहुमत नहीं है तो इस स्थिति में यह मामला और पेचीदा हो सक ता है। सरकार जिस तरह से फूंक-फूंककर कदम रख रही है फिलहाल इस कदम को उठाने से बचना ही चाहेगी।
साथियों बात अगर हम राष्ट्रपति शासन लगाने और राजनितिक नफा नुकसान की करें तो संविधान में राष्ट्रपति शासन के लिए जो परिस्थिति यां दी गई हैं उनके हिसाब से आर्टिकल 355, 356 में राष्ट्रपति शासन का प्रावधा न किया गया है। 355 केंद्र सरकार को राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अ शांति से बचाने की ताकत देता है। जबकि 356 में यह व्यव स्था है कि यदि राज्य शासन को सुचारू रूप से चलाने में असफल रहता है तो वहां राष्ट्र पति शासन लगाया जा सक ता है। इसके लिए राज्यपाल की सिफारिश होना बहुत जरूरी है। कई मामलों में यदि सीधे केंद्र सरकार को यह लगता है कि राज्य का संवै धानिक तंत्र फेल हो चुका है तो वह खुद ही राष्ट्रपति शा सन की सिफारिश कर सकती है। बंगाल में राष्ट्रपति शासन से किसे होगा फायदा?
ममता खेल सकती हैं वि क्टिम कार्ड – यह निर्णय ममता बनर्जी की स्थिति को मजबू त कर सकता है। वे खुद को केंद्रीय हस्तक्षेप के खिलाफ पीड़ित होने का दावा करेंगी। किसी भी संभावित चुनाव के लिए इस कार्ड को खेलकर समर्थन जुटाएंगी। सरकार का डर दिखाकर अल्पसंख्यक तबके को एक तरफा कोलरा इज करेंगी। अपनी शहादत को भुनाने का पुरजोर प्रयास करेंगी। सरकार बंगाल में अभी किसी शहीद को पैदा करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहेगी। बंगाल में आखिरी बार 29 जून 1971 को राष्ट्रपति शासन लगा था। नई विधान सभा के गठन के बाद 20 मार्च 1972 को राष्ट्रपति शासन हटा था। कुल मिलाकर बंगाल में अब तक चार बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है।पहली बार 1 जुलाई 1962 को नौ दिन के लिए, दूसरी बार 20 फरवरी 1968 में करीब एक साल के लिए और तीसरी बार 19 मार्च 1970 में करीब एक साल के लिए राष्ट्रपति शासन लगा था। सत्ता, सेवा का साधन है या कुछ और? इस सवाल पर नेताओं की अपनी अलग-अलग राय और दृष्टि हो सकती है।
साथियों बात अगर हम पश्चिम बंगाल पर माननीय राष्ट्रपति के विचारों की करें तो, उन्होने कहा कि कोल काता में एक डाॅक्टर के साथ जघन्य दुष्कर्म और उसकी हत्या की घटना से पूरा देश सदमे में है और समय आ गया है कि सब लोग मिलकर कहे कि अब और बर्दाश्घ्त नहीं होगा। उन्होंने कहा कि हाल में महिलाओं के खिलाफ जिस तरह से अपराध बढ़े हैं, उन से हमें आत्म मंथन करने की जरूरत है कि इस बुराई की जड़ों का पता लगाया जाए। राष्ट्रपति ने अपने सोशल मीडिया मंच पर साझा किए गए एक बयान में यह बात कही। उन्होंने कहा कि इस घटना की जानकारी मिलने पर वे निराश और स्तब्ध हैं। आगे कहा कि सबसे दुःखद तथ्घ्य है कि यह केवल एक अकेली घटना नहीं है, बल्कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की श्रृंखला की एक कड़ी है। उन्होंने कहा कि कोलकाता में जब छात्र, डाॅक्टर और लोग इस घटना पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, तो अपराधी कहीं और ही निडर घूम रहे थे।
राष्ट्रपति ने कहा कि महिलाओं पर हो रहे अत्या चारों में छोटी-छोटी बालि काएं भी हैं और कोई भी सभ्य समाज बहनों और बेटियों को इस प्रकार के अत्घ्याचारों का शिकार बनने को बर्दाश्घ्त नहीं कर सकता।उन्घ्होंने कहा कि ऐसी घटनाओं से देशभर में रोष व्याप्त होना स्वाभाविक है। राष्ट्रपति ने कहा कि अब समय आ गया है कि हमें एक समाज के तौर पर अपने आप से कुछ कठि न प्रश्न पूछने होंगे। उन्होंने कहा कि हमारे संविधान ने महिलाओं समेत सभी नाग रिकों को उस समय समानता प्रदान की, जब दुनिया के अ नेक हिस्सों में यह केवल आ दर्श मात्र था। आगे कहा कि सरकार को यह समानता सुनि श्चित करने के लिए संस्थान बनाने होंगे और कई कार्यक्रम और अभियान आरंभ करने होंगे। राष्ट्रपति ने कहा कि नागरिक समाज आगे आया और इस संबंध में राज्य के प्रयासों में सहायता की।
उन्होंने कहा कि समाज के सभी क्षेत्रों में दूरदर्शी नेताओं ने लैंगिक समानता पर जोर दिया। राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि आखिरकार, वे असाधा रण, साहसी महिलाएं ही थीं, जिन्होंने अपनी कम भाग्य शाली बहनों के लिए इस सा माजिक क्रांति से लाभ उठाना संभव बनाया। वह महिला सशक्तिकरण की गाथा रही है। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि बंगाल में बवाल-क्या राष्ट्रपति शासन का ख्याल? बंगाल में राष्ट्रपति शासन की सुबसुबाहट तेज?
– उच्च स्तरीय संवैधानिक पदविधरों के बीच मुलाकातों का दौरा शुरू। पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय के पहले अरुणा चल व उत्तराखंड में, राष्ट्र पति शासन को सुप्रीमकोर्ट द्वारा रद्द करने के फैसले को रेखांकित करना जरूरी है।
पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय के पहले अरुणाचल व उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द करने के फैसले को रेखांकित करना जरूरी
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