नारी पुरुष की दासी नहीं साथी -गांधीजी

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(डा. नन्दकिशोर शाह) महात्मा गांधी ने महिलाओं को लेकर आजादी से पहले जो बातें कही थी, वह आज भी उतनी ही मौजूद है। कहना न होगा कि गांधी के अलावा किसी ने भारत को इतने बेहतर ढंग से नहीं समझा। स्त्री को चाहिए कि वह खुद को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दें। इसका इलाज पुरुषों के बजाय स्त्रियों के हाथ में ज्यादा है। उसे पुरुष के खातिर जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर साझेदारी बनेगी। गांधी की नजर में स्त्री की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने तब लिखा था यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो पुरुषों के इस दावे के खिलाफ विरोध करता है कि उसका मन बहलाने के लिए ही पैदा हुई है। पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसकी आदत पड़ गई है। धीरे-धीरे इस पीढ़ी को अपनी इस भूमिका में मजा आने लगा है क्योंकि पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी खींच लेता है और गिरना सरल होने लगता है।
गांधीजी के विचार अनुसार स्त्री व पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें किसी भी तरह का भेदभाव परिवार व समाज के लिए हानिकारक है। इस संसार को सुंदर और सशक्त बनाने में नारियों की भूमिका अहम है। गांधी जी कहते थे कि वह स्त्रियों के अधिकारों के सवाल पर कोई समझौता नहीं कर सकते क्योंकि सामाजिक पुनर्जागरण के लिए आवश्यक है कि महिलाओं को भी बराबरी का स्थान दिया जाए तथा प्रत्येक प्रकार की गतिविधियों में उनका भी उचित स्थान हो। गांधी के अनुसार स्त्री अहिंसा की अवतार है। नारी सृष्टि का प्रमुख उद्गम स्रोत है। देव से लेकर मानव तक सारे की जन्मदात्री स्त्री ही रही है। महिलाएं त्याग और अहिंसा की मूर्ति है। बाल- विवाह, बच्चों एवं महिलाओं के कुस्वास्थ्य का प्रमुख कारण मानते हुए इन को खत्म करने का आह्वान किया था।
1925 में गांधीजी बिहार आए तो पूर्णिया कटिहार, भागलपुर, देवघर, खगड़िया तथा मधुपुर में महिलाओं की सभा को संबोधित किया। उनका मानना था कि शिक्षित परिवार में भी पर्दा प्रथा कायम है। गांधीजी ने पर्दा का विरोध धार्मिक उदाहरणों का हवाला देते हुए किया। द्रोपती, सीता, दुर्गा और राधा के सामने पर्दा नहीं था। बिहार में पर्दा के विरुद्ध मुख लहर 1926 से आई। गांधी जी ने शिक्षिका के रूप में साबरमती आश्रम से राधा वेन तथा दुर्गा बाई को बिहार भेजा। 31 मार्च 1930 को श्रीमती कमला नेहरू ने बिहार की महिलाओं को परदे से बाहर आकर स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कार्य करने का आह्वान किया। स्वतंत्रता आंदोलन में भी सरोजनी नायडू, मधुबन, सुशीला नायर, आभा बेन, सरला देवी, चैधुरानी ने जमकर हिस्सा लिया। गांधी का आंदोलन फलीभूत होने का कारण महिलाओं को साथ लेकर चलना है। महिलाओं ने घर से निकलकर सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और स्वर्णिम इतिहास रचा।
गांधीजी के विचारानुसार स्वावलंबन से आत्मबल बढ़ती है। स्वावलंबन से स्वाभिमान जगता है। बिहार में पर्दा प्रथा की समाप्ति के लिए सामाजिक और स्त्रियों को स्वावलंबी बनाने के लिए खादी आंदोलन को महात्मा गांधी की अमूल्य देन माना जाता है। उन्होंने कहा कि हमारे सभी कार्यों का सौरमंडल का सूरज चरखा है। निःसंदेह इतिहास में गांधी जी ने नारी उत्थान की महायज्ञ की आहुति दी और बिहार में नारी मुक्ति की लहरें उठने लगी। स्वतंत्रोत्तर भारत में निश्चित रूप से नारी की स्थिति में आशातीत बदलाव हुआ है। वह दफ्तरों, होटलों, शिक्षा संस्थाओं एवं संसद में भी एक अच्छी संख्या में दिखाई पड़ रही हैं।
हमारे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में नारी को बिल्कुल बताया गया है कि देवी शक्तियां वहां पर निवास करती है जहां नारी का सम्मान होता है। किसी भी राष्ट्रीय समाज का विकास तभी हो सकता है, जब उस राष्ट्र में नारी और नर में कोई भेद न हो। एक समाज सुधारक के रूप में गांधी जी ने स्त्री उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न किये। उनका मानना था यह दुनिया किसी भी दृदृष्टि से पुरुषों से कम नहीं है। गांधीजी दहेज प्रथा को खरीद बिक्री का कारोबार मानते हैं उनके अनुसार किसी भी युवक जो दहेज को विवाह की शर्त रखता है। वह अपने शिक्षक को कलंकित करता है अपने देश को कलंकित करता है और नारी जाति का अपमान करता है। गांधीजी दहेज प्रथा के भी विरोधी थे। उनका कहना था कि कोई भी ऐसा विवाह जो धन के लालच में किया जा रहा हो उसे विवाह नहीं माना जा सकता। उनके अनुसार ऐसे लोगों को समाज से बाहर निकाल देना चाहिए जो दहेज देते हैं या लेते हैं। गांधीजी का मानना था कि केवल कानून से इस प्रथा को समाप्त नहीं किया जा सकता अपितु इसके लिए सामाजिक संगठनों को जागरूकता पैदा करनी चाहिए। इसके अलावा अंतरजातीय विवाह को भी प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि कन्या के लिए बाप विवाह के लिए मजबूरी में दहेज ना देना पड़े। गांधीजी ने स्त्रियों की शिक्षा को पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण माना क्योंकि एक शिक्षित स्त्री पर आर्य समाज को समृद्ध बनाने बच्चों को चारित्रिक गुणों को विकसित करने में अहम भूमिका निभाती है। भारतीय नारी की क्षमता और किसी भी उन्नतशील देश की नारी से कम नहीं है।
गांधी जी अपने अथक प्रयत्नों के माध्यम से भारत को आजादी दिला कर देश की जनता को अपने मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। वह कहते थे कि अपनी बेटी को पढ़ने का अवसर दो उसके लिए यही सबसे बड़ा दहेज है। गांधीजी बाल विवाह के विरोधी थे। उनका विचार था कि जब बच्चें के भौतिक विकास की क्रियाएं आरंभ होती है तो उसे शादी के बंधन बांध दिया जाता है। जिस बच्ची को गोद में उठाकर प्यार करना चाहिए, उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कराया जाता है। गांधीजी विधवा पुनर्विवाह के पक्षधर थे। उन्होंने समाज में विद्यमान इन रूढ़िवादी परंपराओं को जड़ से मिटाने का प्रयास किया और उसकी जगह एक के युद्ध रहित शांत प्रिय समाज की कल्पना की। एक ऐसा शोषण मुक्त समाज, जहां हर व्यक्ति गर्व से सिर ऊंचा करके चल सके। सामाजिक समानता के पक्षधर गांधीजी अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण लौह पुरुष कहलाए। आज भारत ही नहीं पूरे विश्व के लोग उनके विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। महात्मा गांधी का स्त्रियों के प्रति बेहद सकारात्मक और स्पष्ट दृष्टि कोण रहा है। महात्मा गांधी स्त्रियों के सामाजिक उत्थान के लिए भी बहुत चिंतित हैं। महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाले सामा जिक कृतियों के बारे में उनके मन में काफी कड़वाहट थी। वे मानते थे कि बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के कारण महिलाएं नहीं कर पाती और शोषण अन्याय अत्याचार को झेलने के लिए विवश होती है।
महात्मा गांधी ने नारी को नैतिक शक्ति का स्रोत माना है। अपनी शक्ति को न पहचानने के कारण ही नारी शोषित हुई है। भारत के आर्थिक और सामाजिक जीवन में नारी की बराबरी की भागीदारी है। गांधीजी स्त्रियों को पर्दे में रखने के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि पवित्रता पर्दे की आड़ में रखने से नहीं पनपती, बाहर से वह लादी नहीं जा सकती, उसे तो भीतर से ही पैदा करना होगा। वे नारी को पुरुष की दासी नहीं साथी मानते थे। गांधीजी ने अश्लील विज्ञापनों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। उन्होंने लोगों को प्रेरणा दी की अश्लील विज्ञापनों को हटाने में और हिंसात्मक विरोध करना चाहिए। स्त्री के बिना परिवार के गाड़ी नहीं चल सकती। स्त्री परिवार अर्थशास्त्र रूपी रथ की धुरी है। वह घर और बाहर दोनों के कार्यों को बखूबी निभाती है। घर के सारे कार्य धन पर आधारित होते हैं जो स्त्री के द्वारा ही संपन्न किए जाते हैं। यदि स्त्री बाहर भी कार्यशील है तो वह पुरुष से कई गुना आर्थिक और शारीरिक बोझ उठाती है। इसलिए स्त्री पुरुष की अपेक्षा हर तरह से अधिक श्रेष्ठ है।

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