हर राजसत्ता हिंसा और दमन का उपयोग करती है

RAJNITIK BULLET
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(राजेश कुमार)
मुरादाबाद। राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा मीडिया केवल और केवल व्यापार बनकर रह गया है। राजनीति का उद्देश्य आम जनमानस की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कराना तथा जान और माल की रक्षा कराना होना चाहिए। जिससे देश में सामाजिक और आर्थिक असमानता कम होकर सुख और समृद्धि में वृद्धि हो सके, परंतु जब राजनीति ही व्यापार बन गई है तो इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव सी लग रही है। और मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इंसान मजबूर और लाचार होता चला जा रहा है तथा गरीबी अमीरी के बीच की खाई बेइंतहा बढ़ने से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन होने के साथ- साथ बीमारी ने नासूर का रूप धारण कर लिया है। सामान्यत वैज्ञानिक समाज- वाद में राष्ट्रवाद होता ही नहीं है क्योंकि मेहनतकश तबकों को पहले अपने ही देश के सामंतों/बुर्जुआ/ पूंजीपति वर्ग से ही निपटना होता है, तब ही सामाजिक और आर्थिक असमानता कम से कम हो सकती है, इसके फलस्वरूप नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य तथा मुकम्मल रोजगार प्राप्त कराया जा सकता है, और तब ही कानून सबका समान रूप से संरक्षण कर सकता है अर्थात कानून की नजर में सब बराबर हो सकते हैं, लेकिन पूंजीवाद के राष्ट्रवाद में अमीर और गरीब, सर्वहारा और बुर्जुआ, मजदूर और पूंजीपति सब एक ही खाके में समा जाते हैं अर्थात शोषण करने वाले और जिन का शोषण हो रहा होता है वह एक ही प्लेटफार्म पर आ जाते हैं और वास्तविक लड़ाई दफन हो जाती है। 6 दिसंबर 1956 भारत रत्न डा0 भीमराव अंबेडकर साहेब का परि- निर्वाण हुआ था। जिन्होंने वंचितों को पशुओं से भी बदतर जिंदगी से निकालकर मान सम्मान के साथ उनमें ऐसी चेतना भरी थी जिससे कि वह सदियों की मानसिक, धार्मिक और शारीरिक गुलामी को संघर्षों के माध्यम से काटकर मानवीय हक अधिकार लें सकें और इसके लिए पुख्ता आधार भारत के लिखित इतिहास में ऐसा संविधान दिया जो सब की बराबरी समृद्धि खुशहाली को सैद्धांतिक बनाता है। उनके परिनिर्वाण दिवस पर उनको कोटि-कोटि नमन। हर राजसत्ता हिंसा/दमन का उपयोग करती है अंतर केवल इतना होता है कि हिंसा, शोषितों (मेहनतकश) के साथ हो रही है अथवा शोषकों के साथ। इसका परीक्षण केवल एक ही है कि समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ रही है अथवा घट रही है, यदि सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ रही है तब आप समझिये कि सत्ता मेहनतकश तबकों के खिलाफ और बुर्जुआ/संभ्रांत /पूंजीपति/सामंतों के पक्ष में है। सामाजिक, आर्थिक असमानता, अभाव, गरीबी और बेरोजगारी चाहे कितनी ही क्यों ना बढ़ जाए परंतु क्रांति नहीं हो सकती क्योंकि क्रांति तभी हो सकती है जब मनुष्य के अंदर चेतना के अंकुर फूटते हैं चेतना का मतलब केवल शिक्षित होने से ही नहीं है सामूहिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना चेतन्य होने की शुरुआत हो सकती है यदि न्यूटन पेड़ से टूटे सेब को ईश्वर की कृपा मान कर खा लेता तो गुरुत्वाकर्षण के नियमों का आविष्कार नहीं हो पाता, इसलिए समाज में जो भी सामाजिक/आर्थिक /सांस्कृतिक इत्यादि घटनाएं घट रही हैं या बदलाव हो रहे हैं उनके पीछे जो भी सवाल है उनका अध्ययन/ कारण जानकर समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। ना कि ईश्वर की कृपा मानकर उनको छोड़ा/स्वीकार किया जाए।

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