मुस्लिम-ब्रदरहुड तथा पापुलर फ्रंट आफ इंडिया के बीच विलक्षण समानता

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(संजय चैधरी) बिजनौर। मुस्लिम-ब्रदरहुड (अल-इख्यान अल मुस्लिमन) की स्थापना मिश्र में सन 1928 में हसन अल- बन्ना द्वारा मुसलमानों को इकट्ठा करने के इरादे से की थी। जिसमें मिश्र में राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करना प्रमुख था और आगे चलकर, मध्य-पूर्व, उत्तरी अफ्रीका सत्ता को भी हरियाना था। इस सिद्धांत को लागू कर देने से दुनिया भर में मुसलमान इकट्ठे हो जाते जिन्हें बाद में पहले से स्थापित शासकों और देशों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता। हसन अल-बन्ना का कहना था हम उस बात पर एक दूसरे को सहयोग देते हैं जिस पर हम सहमत हैं और जिस पर हम असहमत है, उसे हम नजरअंदाज कर देते हैं।
इस इस्लाम सिद्धांत को फैलाने वाले अधिकतर मुस्लिम संगठन जिसमें च्थ्प् भी शामिल है, ने अपनाया हुआ है जो परस्पर मतभेदों को नजरअंदाज करके अपने श्अंतिम लक्ष्यश् पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इसी मंशा को पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने फैलाया जो पिछले 85 वर्षो से विभिन्न आतंकवादी संगठनों का मूलमंत्र बन चुका है। यह च्थ्प् के चिंतको और विचारकों द्वारा अपनाई जाने वाली उस रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत च्थ्प् के समर्थक सूफी विचारधारा को मानने वालों के मध्य पैठ जमाएंगे ताकि उनके भीतर असहमति और असंतोष फैलाया जा सके और अधिक से अधिक नौजवानों को अपने में मिलाया जा सके। कुछ हद तक यह रणनीति सफल भी हुई है खासतौर पर उनके बीच जो अक्सर ल्वन ज्नइम, थ्ंबमइववा और अन्य सोशल मीडिया के माध्यों पर आश्रित होते हैं।
श्हदीसश् और श्सुन्तश् के विद्वान अल-अलामा मुकबिलबन हादी अल-वादी ने एक दफा कहा था कि इख्वान अल-मुफलीसन (हसन अल-बन्ना के श्ब्रदरहुडश्) को सहयोग देने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह सिर्फ और सिर्फ अपने दलों और संगठनों को फायदा पहुॅचाने के लिए कार्य करते हैं। उनका अंतिम लक्ष्य लोगों में असंतोष फैलाकर राजनैतिक-सत्ता हथियाना है। मुसलमानों को च्थ्प् के नेतृत्व के उर्दू-अरबी नामों से भ्रमित नहीं होना चाहिए। ठीक जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड ने मिश्र को तबाह कर दिया और अब भी मध्य-पूर्व के ज्यादातर देशों में असंतोष फैल रहा है, च्थ्प् भी स्वहित से प्रेरित श्एकताश् की परिभाषा को गढ़कर व फैलाकर भारत की एकता और अखण्डता को बर्बाद करने पर तुला हुआ है।
अल-इख्वान अल-मुस्लिमनश् और श्पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडियाश् दोनों ने ही सत्ता हथियाने के लिए ईसाइयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए एक चतुर नीति अपनाई है। ईसाइयों को लुभाने के लिए इन्होंने श्ईमानश् शब्द का इस्तेमाल किया है। जब वे श्ईमानश् शब्द का प्रयोग करते हैं तो ईसाई व अन्य मजहबों को मानने वाले लोग आगे आते हैं। इसी प्रकार च्थ्प् सूफी विचारधारा वालों से भिन्न प्रकार से बर्ताव करते हैं। अबू-हुरैरिया ने दोहराया है कि श्अल्लाह के दूत ने कहा कि मेरी उम्माह के आखिरी भाग में ऐसे लोग होंगे जो इस तरह की बातें करेंगे जो ना तुमने और न तुम्हारे पूर्वजों ने सुनी होगी, इसलिए चैकन्ने हो जाओ और ऐसे लोगों से बचो।
इस श्अल-इख्वान अल मुस्लिमनश् तथा उसी श्पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडियाश् जैसे उप शाखाओं द्वारा अपनाया गया यह सिद्धांत बताता है कि जो इसके समर्थन में बात करते हैं, उनके पास इसे साबित करने के लिए कुछ नहीं है फिर भी वे मुसलमानों को नई बातों ध् बदलावों और सांप्रदायिकता को नजरअंदाज करने के लिए मजबूर करते हैं क्योंकि वे अपने इस सिद्धांत को एक बृहत-कल्याण की प्राप्ति हेतु मानते हैं। बहरहाल, हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अगर इस सिद्धांत तथा इसके प्रयोग करने में कोई अच्छाई होती तो श्साहबोंश् व वे सब जिन्होंने हजरत साहब का अनुसरण किया, वे इस सिद्धांत को आज के मुसलमानों द्वारा इसका जिक्र करने से पहले ही लोगों के सामने ला देते और उसे अपनाने की बात कहते ।

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