आओ माता-पिता का सम्मान कर, उनसे जीवन जीने की कला सीखें

RAJNITIK BULLET
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एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी
आज के पश्चिमी संस्कृति युग की ओर बढ़ते कदमांे से भारतीय संस्कृति भी चपेट में आती आ रही है। यह भूमि राम लक्ष्मण श्रवण भगत प्रल्हाद जैसे महापुरुषों की है, जिन्होंने अपने माता-पिता के एक शाब्दिक आदेश को पत्थर की लकीर मानकर अपना जीवन समर्पित कर दिया था, ऐसे हैं हमारी ईश्वरीय दिव्यशक्ति प्राप्त संतो महात्माओं महापुरुषों बुद्धि जीवियों की भारतीय भूमि जिसे हम नमन करते हैं। परंतु बहुत पीड़ा के साथ लिखना पड़ रहा है कि वर्तमान युग की युवा पीढ़ी में बहुत से मनीषियों के बीच प्रथा चल पड़ी है कि हम ही ज्ञान-विज्ञान अनुभव के बादशाह हैं? हमारे माता- पिता बुजुर्गों को क्या समझता है।
उनका दिमाग उम्र के साथ सठिया गया है, पुरानी सोचते हैं नई सोच में ढल नहीं पा रहे हैं, उनको क्या समझता है? इस प्रकार के वाक्य आज के फैशन के अंदाज में कामन हो चुके हैं। मेरा मानना है कि पीड़ित साथी अगर यह आर्टिकल पढ़ रहे होंगे तो मेरा मेरी संवेदनाओं को समझ रहे होंगे जो उन पीड़ित साथियों के लिए है।
आज वह समय आ गया है कि बच्चों को कुछ अपने अनुभवों के ज्ञान के मूल मंत्र बताओ या सिखाओ तो, गवार की गाली हंस कर डाली तुल्य, टाल दिया जाता है, हमारे विचारों पर चलने की बात बोली जाती है, दिशा निर्देश सुझाव को हवा में उड़ा दिया जाता है, अपने तथाकथित आधुनिक जीवन के अनुसार माता-पिता व बुजुर्गों को ढालने के लिए उकसाया जाता है, जो उन माता पिता बुजुर्गों की नजर में नुकसानदेह है।
यानें उसके दूरगामी दुष्परिणाम होना निश्चित है, परंतु आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति युग की विचारधाराओं के बहकावे में आए वे युवा कुछ समझने को तैयार नहीं है, परंतु मेरा मानना है कि उन युवाओं को याद रखना चाहिए जिन्होनें माता-पिता बुजुर्गों से जीवन के मूल मंत्र सीखना टाल दिया है, उन्हें समय का चक्र अपनी स्टाइल में सबक जरूर सिखाएगा। हालांकि कोई माता-पिता बुजुर्ग यह नहीं चाहेगा कि उनके बच्चों के जीवन में कोई तकलीफ हो, परंतु ढ़ीट बच्चे अगर सीखना नहीं चाहे तो समयचक्र का डंडा चलना निश्चित है, यह बात उनको समझ में तब आएगी जब चिड़िया चुग गई खेत वाला मुहावरा होगा, याने माता पिता बुजुर्ग सभी इस लोक पर नहीं परलोक धाम गमन कर गए होंगे, तब उन्हें उनकी बात जाकर समझ में आएगी, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होगी फिर कुछ नहीं होगा, समय चक्र की पीड़ा को सहन करना ही पड़ेगा।
इसलिए आज भी समय है जो हमारे युवक साथियों के पास आप्शन है, अभी भी अपने माता-पिता बुजुर्गों के जीवन के मूल मंत्र अनुभव के अनुसार चलकर अपने दीर्घायु दिव्यकालीन जीवन को सफल बनाएं।
साथियों अगर हम आज के परिपेक्ष में युवाओं की करें तो, आज की भौतिकवादी पीढ़ी में विवाहोपरांत युवक अपने निजी स्वार्थों में इतना लिप्त हो जाते हैं कि वे अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा तो दूर अपितु उनकी उपेक्षा करना प्रारंभ कर देते हैं। यह निस्संदेह एक निंदनीय कृत्य है। उनके कर्मों व संस्कार का प्रभाव भावी पीढ़ी पर पड़ता है।
यही कारण है कि समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है टूटते घर-परिवार व समाज सब इसी अलगाव वादी दृष्टिकोण के दुष्परिणाम हैं। आज संसार में यदि हमारा कुछ भी अस्तित्व है या हमारी इस जगत में कोई पहचान है तो उसका संपूर्ण श्रेय हमारे माता-पिता को ही जाता है। यही कारण है कि भारत के आदर्श पुरुषों में से एक राम ने माता-पिता के एक इशारे पर युवराज पद का मोह त्याग दिया और वन चले गए थे।
साथियों बात अगर हम भारतीय संस्कृति में माता- पिता के मूल्यों की करें तो, माता-पिता की सेवा द्वारा प्राप्त उनके आशीर्वाद से मनुष्य जो आत्म संतुष्टि प्राप्त करता है वह समस्त भौतिक सुखों से भी श्रेष्ठ है। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव वाली वैदिक अवधारणा को एक बार फिर से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है ताकि हमारे देश का गौरव अक्षुण्ण बना रहे।
अधिकांश संस्कृतियों में, आमतौर पर वयस्क बच्चों द्वारा बुजुर्ग माता-पिता की कुछ देखभाल की अपेक्षा की जाती है। ये उम्मीदें बुजुर्ग माता-पिता या वयस्क बच्चों के बीच, सामाजिक मानदंडों में और राज्य-वित्त पोषित घरेलू सहायता के लिए आवंटन निर्णयों के अभ्यास में पाई जा सकती हैं। अलग-अलग पार्टियों की अपेक्षाएं अक्सर अभिसरण नहीं होती हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि वयस्क बच्चे और बुजुर्ग माता-पिता के बीच संबंधों में क्या उम्मीदें वैध हैं। समाज परिवार में बुजुर्ग वटवृक्ष का रूप होता है। उनके आदर्श संस्कारों का युवा पीढ़ी को जीवन में अनुसरण करना चाहिए। बुजुर्गों का मान-सम्मान हमारी सुसभ्य संस्कृति स्वस्थ मानसिकता का परिचायक है। बदलते परिवेश में नई पीढ़ी को बुजुर्गों के अनुभव सीख से प्रेरणा मिलती है। जिस परिवार को बुजुर्ग का आशीर्वाद मिल जाता है, वह खुशनसीब होता है और निरंतर तरक्की भी करता है। युवा पीढ़ी को सामाजिक परिवर्तन के दौर में अपनी सेवाभावी सोच को मानसिक विचार बनाने का जरूरी हैं।
साथियों बात अगर हम शास्त्रों में माता-पिता के बखान और उनके अपमान की सजा की करें तो, संस्कृति के श्लोकों में भी आया है, मातरं-पितरं पुत्रे न नमस्यति पापधीः, कुरुभीपा के बसेत् तावद् युगसहड्डकम्य्, अर्थात जो पुत्र अपने बुजुर्ग माता- पिता का संरक्षण, पोषण नहीं करता, बुजुर्गियत में उनका ख्याल नहीं करता, उसे सहस्र युगों तक कुम्भीपाक नामक नरक में रहना पड़ता है, इसके विपरीत माता-पिता, बुजुर्गों के प्रति कृतज्ञता बरतने, उनकी सेवा, सम्मान करने वाले को असीम सुख-शांति, संतोष, सदगति प्राप्त होती है। मनु स्मृति कहती है- अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
अर्थात् तुम अपने बड़ों का आशीर्वाद लो, निश्चित रूप से बड़ों के आशीर्वाद से तुम्हारी आयु बढे़गी, जबकि सच यह भी है कि उन बुजुर्गों में भी इससे संतोष, शांति व आरोग्यता बढ़ती है। यदि हम अपने बुजुर्गों के प्रति पारस्परिक शांति-सद्भाव, प्रेम, करुणा, संवेदनापूर्ण व्यवहार रखते हैं, तो परिवार सुखद वातावरण से भर उठता है, समाज के सभ्य बनने में देर नहीं लगती। बुजुर्गों को भी संतोष होता है कि उंगली पकड़कर हमने जिसको चलाया, जिन्हें भाषायी संस्कार दिये, अपना प्रेम, करुणा देकर सर्वस्व लुटाया, वे आज अपने बुजुर्ग माता- पिता, वरिष्ठजनों के प्रति आदर, कृतज्ञता तो प्रकट कर रहे हैं। इन प्रयोगों से बुजुगों में ताजगी भरी ऊर्जा जगती है और वे दीर्घजीवी, आरोग्यपूर्ण जीवन की अभिलाषा से भरते हैं। जबकि उपेक्षा से उनका मनोबल गिरता ही है, बीमारी घेरने लगती है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि माता-पिता का स्थान गुरु से भी ऊंचा है। आओ माता-पिता का सम्मान करें उनसे जीवन जीने की कला सीखे। माता-पिता से जिस बच्चे ने जीवन के मूल मंत्र को सीखना टाल दिया उसे समय का चक्र अपने स्टाइल से सबक सिखाता है।

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