(रिर्पोटर प्रेम वर्मा)
खुद रोते हुए भी बच्चों को पढ़ाता रहा हूँ मैं।
खामोशियों में अपनी चीखें छुपाता रहा हूँ मैं।
अयोग्यता का तमगा दे दिया किरदार को मेरे,
फिर भी सभी ड्यूटी चुनाव कराता रहा हूँ मैं।
इजाफा नहीं इक पाई का पारश्रमिक में मेरे,
सुबहा शाम सरकार को ये बताता रहा हूँ मैं।
दो वक्त की भी रोटियाँ न हमको नसीब हुयीं,
जिनकें लिए कई साल से पढ़ाता रहा हूँ मैं।
होली के रंग हों या हों पटाखे दिवाली के,
हर बार बच्चों के अरमान दबाता रहा हूं मैं।
युं तो साल दर साल कुछ पाने का नाम है,
पर इस नौकरी में हर पल गंवाता रहा हूँ मैं।
न कोई खता की है मैंने न कोई जुर्म मगर,
फिर भी बिना कसूर सजा पाता रहा हूँ मैं।
हालात अब तलक मेरे बने हैं जस के तस ,
सुधार की वर्षो से गुहार लगाता रहा हूँ मैं।
लेखक- शिक्षामित्र बीघापुर, उन्नाव