इस तरह जहां एक ओर पुराने कानून के तहत नागरिकता दी जा रही है वहीं सीएए संबंधी मामले पर उच्चतम न्यायालय में जल्द ही सुनवाई भी होने वाली है। हम आपको बता दें कि उच्चतम न्यायालय ने संशोधित नागरिकता अधिनियम (सीएए) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कुछ याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने के लिए असम और त्रिपुरा की सरकारों को तीन सप्ताह का समय दिया और मुद्दे पर अगली सुनवाई के लिए छह दिसंबर की तारीख तय की है।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी के नेतृत्व वाली पीठ ने दो वकीलों- पल्लवी प्रताप और कनू अग्रवाल को 230 से अधिक याचिकाओं को संयुक्त संकलन के जरिए सुचारू रूप से संभालने और याचिकओं में से प्रमुख याचिकाएं तय करने में सहायता करने के लिए नोडल वकील के रूप में नियुक्त किया है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल की इन दलीलों का संज्ञान लिया है कि इंडियन यूनियन ऑफ मुस्लिम लीग द्वारा दायर याचिका को मुख्य मामले के रूप में माना जा सकता है क्योंकि इस मामले में दी गईं दलीलें पूरी हैं। पीठ ने वकीलों से कहा है कि वे रिकॉर्ड के संकलन को आपस में डिजिटल रूप से साझा करें और लिखित दलीलें दाखिल करें जो तीन पृष्ठों से अधिक न हो। कोर्ट की पीठ ने कहा, “असम और त्रिपुरा तीन सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करेंगे… इन मामलों को छह दिसंबर, 2022 को उपयुक्त अदालत के समक्ष सूचीबद्ध करें।”
वहीं जहां तक सीएए पर केंद्र सरकार के रुख की बात है तो आपको बता दें कि सरकार ने उच्चतम न्यायालय से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने का अनुरोध किया है। केंद्र सरकार ने जोर देते हुए कहा है कि यह कानून असम में “अवैध प्रवास” या भविष्य में देश में किसी भी तरह की विदेशियों की आमद को प्रोत्साहित नहीं करता है। केन्द्र ने सीएए के आवेदन से असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के कुछ क्षेत्रों को हटाए जाने का भी यह कहकर जोरदार बचाव किया कि यह मूल निवासियों के ‘‘जातीय / भाषाई अधिकारों की रक्षा’’ के लिए किया गया है और यह ‘‘भेदभावपूर्ण नहीं’’ है।
गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल 150 पन्नों के एक विस्तृत हलफनामे में कहा है कि यह एक ‘‘केंद्रित कानून’’ है जो केवल छह निर्दिष्ट समुदायों के सदस्यों को नागरिकता प्रदान करता है जो 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले देश आए थे और यह किसी भी भारतीय के कानूनी, लोकतांत्रिक या धर्मनिरपेक्ष अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है।