अशफाकउल्लाह खानः हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा नौजवानों की प्रेरणा के प्रतीक

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(संजय चैधरी) बिजनौर। स्वतंत्रता सेनानी उन चमकते सितारों जैसे होते हैं जो निरंतर रोशनी देते हैं और इंसानी बेहतरी के लिए दिए गए अपने अतुलनीय योगदान के कारण अमर हो जाते हैं। अशफाकउल्लाह खान एक ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानी थे जो विदेशी हुकूमत के धुर विरोधी थे तथा इस हुकूमत के अधीन रहने वाले आम आदमी द्वारा पेश आ रही दिक्कतांे के प्रति पूरी तरह से सजग थे। अशफाक उल्लाह खान का जन्म दिनांक 22 अगस्त, सन् 1900 में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में एक धनाढ्य जमींदार परिवार में हुआ। वे ऐसे राष्ट्रवादी-क्रांतिकारी थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विरोध जताया और अपनी भारत माता को स्वतंत्र कराने के लिए अपना जीवन भी कुर्बान कर दिया। स्कूल के दिनों से ही वे अंग्रेजों के खिलाफ गतिविधियों में संलिप्त रहते थे तथा स्थानीय प्रशासन के खिलाफ अपना विरोध जाहिर करते थे।
वे ‘असहयोग-आंदोलन’ के दौरान बड़े हुए जिसके अन्तर्गत महात्मा गांधी ने लोगों को ब्रिटिश हुकूमत को अपना टैक्स अदा न करने का आह्वान किया था। फरवरी, 1922 में गोरखपुर ‘चैरीचैरा’ नामक स्थान पर इसी नाम से एक ‘कांड’ हुआ जिसमे असहयोग-आंदोलन में भाग लेने आए अनेकों की संख्या में प्रदर्शकारियों ने पुलिस के साथ संघर्ष करते हुए स्थानीय पुलिस स्टेशन को जला दिया जिसके फलस्वरूप 22 अफसरों की मौत हो गई। गांधी जी जो कि हिंसा के खिलाफ थे, ने तुरंत अपने इस आंदोलन पर रोक लगा दी। नौजवान प्रदर्शनकारी जिनमे अशफाक उल्लाह भी शामिल थे, गांद्दी जी के इस फैसले से खफा हो गए जो बाद में उनकी राम प्रसाद बिस्मिल से हुई गहरी दोस्ती का कारण बना।
अशफाकउल्ला ने बिस्मिल की अगुवाई में कई गतिविधियों को अंजाम दिया। उनकी वचनबद्धता एवं दूरदर्शिता ने उन्हें इस आंदोलन का एक प्रमुख व सबसे विश्वसनीय सदस्य बना दिया। बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाकउल्लाह ने बड़ी संख्या में क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया। इस आंदोलन के शुरूआती दिनों में, राम प्रसाद बिस्मिल अपने आंदोलन के लिए असलहा व हथियार प्राप्त करने की गरज से काकोरी से चलने वाली रेलगाड़ी को लूटना चाहते थे जो सरकारी खजाने को ढोने का काम करती थी। अन्य सूत्रों से बाद में पता चला कि अशफाकउल्ला इस ट्रेन डकैती के हक में नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि अगर ऐसी डकैती होती है तो सरकार क्रांतिकारियों के खिलाफ कदम उठाएगी। बहरहाल, एक अनुशासनप्रिय कार्यकर्ता तथा कट्टर अनुयायी होने के कारण अन्ततः उन्होंने बिस्मिल के सुझाव को मान लिया क्योंकि संगठन के अनेकों सदस्यों ने भी इसका समर्थन किया था। वे इस योजना को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने वाले एक प्रमुख कर्ताधर्ता थे।
9 अगस्त, सन् 1925 को सरकारी खजाने को ले जाती हुई एक रेलगाड़ी को काकोरी स्टेशन के पास लूट लिया गया। अंग्रेजी प्रशासन इस घटना से स्तब्ध रह गया। इसके कारण क्रांतिकारियों के खिलाफ सख्त अभियान चलाया गया और इन संगठनों के अनेकों सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना के बाद अशफाक उल्लाह भूमिगत हो गए। किन्तु एक वर्ष बाद ही उनके गांव के एक व्यक्ति द्वारा द्दोखा देते हुए पुलिस को की गई मुखबरी की वजह से दिल्ली में उनके छिपने के स्थान से गिरफ्तार कर लिया गया। इस केस के चलते उन्होंने बिस्मिल को बचाने की खातिर ‘काकोरी रेल-डकैती’ की पूरी जिम्मेवारी अपने ऊपर लेने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने अपने वकील के सुझाव की परवाह न करते हुए प्रिवी- काऊंसिल को एक खत लिखा जिसमें पूरे घटनाक्रम की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली। अशफाकउल्ला खान को बाद में फांसी की सजा सुनाई गई और 19 दिसंबर, 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अशफाकउल्ला खान के बलिदान ने यह दिखा दिया कि भारत हमेशा ही ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ की धरती रहा है। मुश्किल वक्त में भारत को राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान द्वारा निभाई गई दोस्ती की बहुत सख्त जरूरत है।

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