(लेखा कुमारी) हिंदू धर्म में मनाया जाने वाला वर्ष का अंतिम महापर्व छठ बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। तो आइए जानते हैं इस महापर्व के बारे में कुछ विशेष। एक कहावत है दुनिया उगते हुए सूरज को सलाम करती है। अंग्रेज भी कहा करते थे ब्रिटिश राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता। ऐसा माना जाता है कि डूबते हुए सूर्य को अशुभ माना जाता, गलत माना जाता है, ऐसा यूरोप और अरब के लोग मानते होंगे, हम भारतवासी ऐसा नहीं मानते। हम डूबे हुए सूर्य को भी पूजते हैं। हम पश्चिम में अस्त होते हुए सूर्य को उतना ही श्रद्धा से पूजते हैं। जितना कि उगते हुए सूर्य को, क्योंकि सूर्य देवता है और देवता के दिशा बदल लेने से उसके लिए हमारा भाव नहीं बदल जाता, सबसे बड़ी बात है कि ‘सूर्य का सूर्य होना, सृष्टि और जीवन का आधार होना।’ हर साल दिवाली के छठे दिन कार्तिक शुक्ल के दिन खासकर भारत के पूर्वोत्तर राज्य यूपी, बिहार, झारखंड की माताएं अस्त होते हुए सूर्य को नतमस्तक होती है, और सातवें दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देती है, भारत के रगदृरग में बसा यह त्यौहार छठ पूजा कहलाता है। जिसमें माताएं अपने पुत्र पुत्रियों के लिए लंबी उम्र की कामना करती है, और एक ही स्वर में गाती है कांचे ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए, होय ना बलम जी बहंगिया, बहंगी घाट पहुंचाई।
मुझे लगता है इतने भावनाओं से भरा हुआ शायद ही कोई गीत हो। छठी माता कौन है इसके बारे में अलग- अलग धारणाएं हैं। पुराणों में नवरात्रों में पूजी जाने वाली मां कात्यानी को ही छठ माता कहां जाता है। सनातन धर्म में उन्हें ब्रह्मा के मानस पुत्री कहा गया है। मानस पुत्री मतलब वह बेटी जिसके जन्म में शरीर का कोई भूमिका ना हो मन से मन का मिलन हुआ तरंगे मिली और संतान का जन्म हो गया। यह पूजा कब से शुरू हुई यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता, लेकिन ऐसा उल्लेख मिलता है कि महाभारत काल में द्रोपदी छठ माता की पूजा किया करती थी। बिहार का एक जिला है, भागलपुर महाभारत काल में इसे अंग देश के नाम से जाना जाता था और इसके राजा थे सूर्यपुत्र कर्ण, अंगराज कर्ण। कर्ण भी छठ पूजा करते थे, ऐसा उल्लेख किया गया है कि अब कर्ण तो थे ही सूर्य पुत्र, सूर्य की उपासना या पिता की उपासना दोनों का एक ही अर्थ था। पूरे वर्ष का सबसे अंतिम और इस महापर्व पर लोग जहां कहीं भी होते हैं। इस त्योहार पर अपने घर को आते हैं, ताकि इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाते हुए अपनी मां और मिट्टी साथ ही परिवार से जुड़े रहे, और 4 दिनों तक चलने वाला यह महापर्व पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। आइए जानते हैं 4 दिन के इस पर्व में क्या-क्या किया जाता है। कैसे मनाया जाता है। छठ पूजा,,,,,,महापर्व के 4 दिन चतुर्थी से छठ माता का व्रत शुरू किया जाता है और पहला दिन होता है नहाए खाए। नहाए खाए के दिन घर की विशेष साफ सफाई की जाती है उसके बाद चावल, दाल, कद्दू की सब्जी बनाई जाती है। कई लोग नहाए खाए के दिन गेहूं ही धोते हैं, और सुखाते हैं। फिर इसी गेहूं के आटे से ठेकुआ बनाया जाता है। उसके बाद दूसरे दिन यानी पंचमी के दिन होता है खरना, यह व्रत खीर खाकर किया जाता है इसीलिए इसे कहते हैं खरना व्रत इस दिन जितने भी छठ व्रती होते हैं वह सूर्य को अर्घ देते हैं, और पूरा दिन व्रत करते हैं।
शाम के समय गुड़ की खीर खाकर छठी मैया को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके बाद शुरू हो जाती है अगले दिन व्रत की तैयारी। तीसरे दिन शुरू होता है निर्जल व्रत यह 30 घंटे का होता है। तीसरे दिन को सुबह से शुरू हुआ व्रत चैथे दिन की सुबह तक चलता है, चारों दिनों में नदी में नहाने का विशेष महत्व माना जाता है जिनके घर के पास नदी नहीं है। वह पोखर या तालाब में भी नहा सकते हैं। तीसरा दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ देने का दिन माना जाता है। छठ व्रती पूरा दिन शाम के पूजा की तैयारी में लगी रहती है। बांस की डलिया को सजा कर उसमें पूजन सामग्री रखी जाती है। जिसे दौरा कहा जाता है। जिसे ढककर सिर पर रखकर नदी तक ले जाया जाता है। यह सब सामान माता छठी को सूप में रखकर अर्पित किया जाता है। सभी लोग 3ः00 से 4ः00 बजे तक घाट पर पहुंच जाते हैं, और शाम की पूजा के लिए गन्ने से मंडप तैयार करते हैं। मंडप ऐसी जगह पर लगाया जाता है। जहां से आपका मुंह सूर्य की तरफ हो मंडप पर घी का दीपक जलाया जाता है, और अस्ताचलगामी अर्थात डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, और उस जगह पर सात प्रतिमा की जाती है, कुछ लोग रात भर घाट पर रुकते हैं। कुछ शाम को अर्घ देकर वापस चले आते हैं, जो लोग घाट पर रुकते हैं वह लोग मंडप अखंड दीप जलाते हैं जो रात भर जलता है। सूप या फल जो भी ली जाती है वह जोड़े में ली जाती है। एक शाम की पूजा के लिए दूसरी सुबह की पूजा के लिए यह पूरी तरह प्रकृति की पूजा होती है। इसीलिए इसमें जलाशयों और सूर्य की किरणों का विशेष महत्व होता है। लोग अपनी इच्छा पूर्ति के लिए व्रत करते हैं। हर इच्छा के लिए अलग-अलग डाली अर्पित की जाती है। चैथा दिन होता है ऊषा अर्ध का दिन उस दिन यानी उदयी मान उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। जिसमें अक्षत और फूल मिलाकर अर्घ्य अर्पित किया जाता है। छठ के घाट पर ना कोई अपना होता है ना कोई पराया ना कोई जात न कोई बात न छुआछूत, न ऊंच-नीच सभी लोग हर बेदी पर जाकर प्रसाद मांगते हैं। अपनी बेदी के साथ दूसरे के बेदी पर भी सर झुका कर आशीर्वाद लेते हैं। छठ के घाट पर सामाजिक विभाजन की वर्जनाएं टूट जाती है। सब की एक ही पहचान होती है। सब छठ मां के बेटे बेटियां हैं। वह दिन ऐसा होता है जहां कोई छोटा बड़ा अमीर गरीब नहीं होता दूर-दूर तक एक ही चीज दिखाई देती है सिर्फ मनुष्य और उसकी चमचमाती हुई मनुष्यता। जितने निष्पाप, निश्चल छठ के अंतिम दिन होते हैं। उतने अगर पूरे वर्ष 365 दिन रह पाए, तो भारत को विश्व गुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता।
छठ माता आप पर कृपा करें आप सुखी व समृद्ध हो और इस बार अगर आप छठ पर गांव नहीं गए तो अगली बार जरूर जाए, क्योंकि मां, माटी और अपनेपन का प्यार अनसुनी नहीं की जाती।
कैसे मनाई जाती है छठ पूजा, क्यों है इतना विशेष
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