गुरुवर की आज्ञा पर सर्वस्व निशौवर करने वालों द्वारा अपने माता-पिता की अवज्ञा क्यों?

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एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी – गोंदिया। वैश्विक स्तर पर आदि अनादि काल से भारत माता की धरती पर माता- पिता को सर्वश्रेष्ठ गुरू मानने के अनेकों या यूं कहें कि अन गिनत उदाहरण से इतिहास भरा पड़ा है परंतु वर्तमान परिपेक्ष में मैं यह महसूस कर रहा हूं कि समाज का एक बहुत बड़ा तबका अपने जीवन शैली को परिवर्तित करने में मुस्तैद है। आदि-अनादि काल से हमारे भगवानों की पूजा अर्चना हो रही थी परंतु वर्तमान समय में उपवास पूजा अर्चना तो क्या उनकी तस्वीर भी हटा दी गई है और बहुत ही जोर-शोर से नए आधुनिक बाबाओ गुरुवारों की सेवा में मुस्तैद हो गए हैं। अलग अलग स्तर पर उनकी गुरु दीक्षा लेकर केवल उनके ही हो गए हैं। यहां तक कि अपने माता पिता का दर्जा भी अपने उस गुरुवार से कम कर दिया है। मैं देख रहा हूं कि आजकल उन भक्त गणों सेवकों के लिए अपने गुरुवर की आज्ञा सर्वोपरि हो गईं है, उनपर सर्वस्व निषेश्वर कर देते हैं। जबकि अपने माता – पिता की अवज्ञा करने में बिल्कुल पीछे नहीं हटते उनका सम्मान की जगह अपमान करते हैं, उनके लिए अपने माता-पिता से भी बड़े गुरुवर हो गए हैं जो मेरा मानना है कि उचित नहीं है, मेरे माता-पिता ही सरोवर सर्वोपरि हैं, उसके बाद मेरे गुरुवर हैं। चूंकि शास्त्रों में भी आया है, माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चत्रं च खात्। भावार्थ-माता पृथ्वी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। इसलिए हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे गुरुवर की आज्ञा पर सर्वस्व निशौवर करने वालों द्वारा अपने माता-पिता की अवज्ञा क्यों?
साथियों बात अगर हम माता पिता गुरुवर और ईश्वर अल्लाह को क्रमिक स्थान देने की करें तो, जन्म लेने के बाद बच्चे की प्रथम गुरु उसकी माता ही होती है जो उसे जीवन दान देने के साथ साथ अच्छे संस्कार भी देती है इसलिए प्रथम स्थान माता को देना चाहिए। जब बच्चा बड़ा होता है तो बहुत सी चीजों की जरूरत होती है जैसे स्कूल के लिए फीस, पढ़ने के लिए किताबें, तन ढकने के लिए वस्त्र इन सभी वस्तुओं को खरीदने के लिए अर्थ की जरूरत होती है जिसकी पूर्ति एक पिता ही कर सकता है तो दूसरा स्थान पिता को देना चाहिए। जब बच्चा बड़ा होकर स्कूल जाता है तो वहां उसके टीचर उसे बाहरी दुनियां से अवगत कराते हैं अच्छे और बुरे लोगो में भेद करना बताते हैं,पढ़ लिखकर क्या करना है? इन सारी दिन दुनियां की जानकारी एक गुरु देता है इस लिए गुरु का तीसरा स्थान होना चाहिए। लेकिन अगर हम अपने धर्म शास्त्रों में जब पढ़ते हैं तो वहां हमे यह पढ़ने को मिलता है कि गुरु का स्थान सबसे ऊपर होता है लेकिन उसमे यह नहीं बताया जाता है कि वह कौन सा गुरु है जिसका स्थान सर्वोपरि होता है? बेशक!! वह प्रथम गुरु माता ही होती है। लेकिन हम ज्ञान के अभाव में अपने धर्म ग्रंथों में लिखी गई पंक्तियों की सूक्ष्म व्याख्या नहीं कर पाते हैं। अगर माता न होती तो गुरु का शिष्य कहां से आता? वह किसकी बताता कि गोविंद, ईश्वर कौन है? जब जननी ने शिशु को जन्म दिया, पिता ने उसकी परवरिश कर ने में मदद की तब गुरु को एक शिष्य मिला। बेशक! एक बालक को आदर्शवादी बालक बनाने में गुरु का बहुत बहुत बड़ा योगदान होता है हम इससे पूरी तरह से सहमत हैं। चैथे स्थान पर हम ईश्वर को रखते हैं क्योंकि हमारे अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा वही रखता है।
अंतिम निर्णय उसी का होता है। उसकी इजाजत के बिना पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिलता है। वह जब चाहें माता, पिता, गुरु और शिष्य को अपने पास बुला सकता है। हमारे माता-पिता जन्म दिए है और हमारे पालन पोषण सब क्या है हमारे जिंदगी मा ता पिता के ही दिए हुए हैं इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बातें है की माता पिता ही ईश्वर हमारे है उन्हीं से सोच समझ और दुनिया देखने को मिलते हैं इसलिए प्रथम गुरु माता एवं पिता और गुरु ईश्वर का रूप होता है इसलिए माता- पिता भगवान से भी बढ़कर होते हैं और भगवान कहलाते हैं। साथियों बात अगर हम ईश्वर अल्लाह से माता-पिता का स्थान ऊंचा होने की करें तो, दुनियां में भगवान व गुरु का स्थान ऊपर है, मगर सबसे ऊपर है माता-पिता का स्थान। उसमें भी मां सर्वोपरि है।
वेद ग्रंथों में उल्लिखित के अलावा तमाम उदाहरण हैं, जो मां को सबसे बड़ा बताते हैं। गणेश चरित्र का वर्णन करते हुए कहा गया है कि भगवान कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करने चले जाते हैं। लेकिन गणेश जी माता पिता की परिक्रमा करते हैं। परि णाम गणेश जी विजयी होते हैं। यानें माता पिता का स्थान सर्वोपरि है। शास्त्र की व्या ख्या कर कहते हैं कि शास्त्र कहता है कि सबसे बड़ा भग वान, उससे बड़ा गुरु, गुरु से बड़ा पिता तथा पिता से भी बड़ा है मां का स्थान है।
रामायण के अध्याय का वर्णन करते कहा गया है कि भगवान श्रीराम सुबह उठकर पहले माता पिता फिर गुरु को माथा नवाते हैं। यानें माता पिता का स्थान सर्वोपरि है।
साथियों बात अगर हम आज की नई पीढ़ी की करें तो आज की औलाद अपने माता पिता से अधिक महत्व अपने श्रद्धेय बाबा, गुरु, आचार्य को दे रहे हैं, अपने घर से अधिक आध्यात्मिक स्थल पर सेवा को अधिक महत्व दे रहे हैं, अपने घर परिवार माता-पिता को तरसाकर अपने आध्या त्मिकता पर अधिक व्यय कर रहे हैं और बड़े रौब से कहते हैं, मैं फलाने आध्यात्मिक स्थल का संस्थापक सेवादार, भग वान ईश्वर अल्लाह का भगत हूं बंदा हूं। परंतु मेरा मानना है, ये कैसी आध्यात्मिक सेवा है? जो माता-पिता को बोझ और अनावश्यक श्रेणी में रख कर उनपर शाब्दिक कटु बा ण चलाकर अपने आचार्य के सामने, अपने आध्यात्मिक स्थ ल पर तन-मन-धन से सेवा करते हैं। मेरा मानना है या तो पाप से भी बड़ा पाप है। इसलिए आज जरूरत है,हमारे श्रद्धेय आध्यात्मिक बाबाओं द्वारा अपने प्रवचनों में माता- पिता की सेवा सर्वश्रेष्ठ पर, बल देना समय की मांग है। हम पत्थर पूजते है, मंदिर जाते है, पूजा पाठ करवाते है, और वो सारी चीजे करते है जिससे हमें लगता है कि हमारा जीवन धन्य हो जाएगा लेकिन क्या हम जानते है कि ईश्वर अल्लाह हमारे पास हमेशा माता पिता के स्वरूप में होता है, बस जरूरत है उन्हें पहचाननें की।
अपनी खुशियों का गला घोटकर हमारी सारी ख्वाहिश पुरी करने वाले माता पिता ही थे, जिन्होंने हमें इस समाज में जीने का अधिकार दिलाया। जब वे हमारे लिए इतना कुछ कर सकते है। तो क्या हम नही?, मेरा तो ये मानना है, माता-पिता के जीते जी उन्हें सारे सुख देना ही वास्तविक श्राद्ध है! आओ माँ बाप का सम्मान करें और उन्हें जीते जी खुश रखे।
साथियों बात अगर हम माता पिता ही ईश्वर अल्लाह के तुल्य होने की करें तो, पदम पुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सद्गुणों से माता – पिता संतुष्ट रहते हैं, उस संतान को प्रतिदिन गंगा-स्नान का फल मिलता है। माता सर्व तीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। इस लिए सभी प्रकार से माता-पिता का पूजन अर्थात उनकी सेवा करनी चाहिए। वेद शास्त्रों के अनुसार माता पिता भगवान के तुलाया है उनका सेवा करने का मतलब है ईश्वर अल्लाह की इबादत करना पूजा करना इसी लिए मेरे मत अनुसार माता पिता के सेवा से बढ़ाकर कोई भी पूजा शायद ही हो सकती है।
साथियों बात अगर हम भक्ति साधना की करें तो, ऐसे नकली गुरुओं से बचकर रहें जो कि हमको कहे कि माता पिता को छोड़ दो और हमारी शरण में आजाओ। भक्ति साधना करने के लिए माता पिता को छोड़कर जाने की कोई जरूरत नहीं होती। साथ रहकर भी साधना की जा सकती है। हम भी तो गुरु पूजन, धूना पूजन, ईष्ट पूजन करते ही हैं। हम तो अपने माता पिता को अकेला छोड़ कर कहीं नहीं गए।हां ये अवश्य है कि हमको अपनी साधना के लिए आसपास के एरिए में घर छोड़कर कुछ समय के लिए जाना जरूर पड़ता है, क्योंकि साधनाएं घर के अंदर, कमरे में बैठकर नहीं की जाती। क्या कारण है कि माता-पिता हमारे पहले गुरु की श्रेणी में आते हैं? माता पिता इसलिए पहली श्रेणी में आते हैं क्योंकि गुरु ज्ञान देता है। और ज्ञान से हम जीवन मे आगे बढ़ते हैं। ये ज्ञान हमे पहले माँ से मिलता हैं जब हम माँ के पेट में होते हैं तभी से ये ज्ञान देने की शुरवात होती हैं। उस वक्त माँ अच्छि किताबे पद्धति हैं। संगीत सुनती हैं। रोज टहलने जाती हैं ताकि हम स्वस्थ रहे। जब बाहर आते हैं तो ओ ही पूरी देखभाल करती हैं। अच्छा खाना देती हैं। तबएक डाक्टर की तरह हमारी देखभाल करती हैं। सब टाइम पे। हमे चलना सिखाना। बोलना सीखाना इसमें माँ बाप का पहला लेसन होता हैं। हम बार बार चलते वक्त गिरते हैं तो वही सम्भलते भी हैं। बोलते वक्त कैसे शब्द उच्चारण करना ये सबसे पहले वही सिखाते हैं। अच्छा साफसुतरा रखते हैं। अच्छा रहने की सीख वही देते हैं। स्कूल में तो हम बाद मे ये सब पढ़ते है लेकिन पहली सीख माँ बाप से ही मिलती हैं। और उनकी ये सीख बस यही तक खत्म नही होती। जीवन के हर रास्तांे पे उनके अनुभव हमे हर मुश् िकल का सामना करने की सिख देते है। जिंदगी जीने की सीख देते हैं। हर मुश्किल से बचाते है। जीवन की हर सीख किताबो से नही मिलती। इसलिए माँ बाप प्रथम श्रेणी में आते है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चत्रं च खात्। भावार्थ-माता पृथ्वी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। गुरुवर की आज्ञा पर सर्वस्व निशौवर करने वालों द्वारा अपने माता -पिता की अवज्ञा क्यों? श्रद्धेय गुरुवरों द्वारा अपनें शिष्यों को अपने माता-पिता की आज्ञा भाणे में रहने का मार्ग दर्शन देना समय की मांग है।

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